“तू या तो लालच से हारेगा, या अपने डर से, दोनों से जीता तो तुम्बाड नहीं जाएगा,
नहीं समझा? जब देवी की कोख़ में जाएगा, तो समझ जाएगा।”
तुम्बाड कहीं से भी एक साधारण फ़िल्म नहीं है, इसमें हर वो गुण है जो इसे ऑस्कर जिता सकता था, चाहे वो सिनेमाटोग्राफी हो, लेखन हो, कहानी कहने का तरीका या कुछ और, पर इस बॉलीवुड से ऐसी क्या उम्मीद रखना। तुम्बाड शुरू होती है, और फ़िर अगले 2 घण्टे आपके नहीं तुम्बाड के होते हैं।
कहानी 20वीं शताब्दी की है, पर है आज़ादी से पहले की, तुम्बाड नाम के गाँव की जहाँ बारिश थमने का नाम नहीं लेती। वजह- देवताओं का क्रुद्ध होना।
एक माँ के लिए उसके बच्चे का बस होना ही सब कुछ है, चाहे वह औलाद कितनी भी नालायक क्यों न हो। पूर्ती की देवी का पहला बच्चा था हस्तर, सबसे बड़ा, सबसे लालची, और इसी लालच ने उसे देवी की कोख़ में कैद कर दिया।
एक परिवार का श्राप, खून में रचा-बसा और पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ता लालच, तुम्बाड हम सब के उस पहलू को छूती है जो ये जानता है कि गुण हो या अवगुण, पीढ़ी के साथ बढ़ता जाता है।
कहते हैं न, “हराम की नौकरी, जी का जंजाल”, हराम का पैसा भी कुछ ऐसा ही है, जितना आए उतना कम। हमारे यहाँ एक कहावत है, “मुफ़्त के मिले, त मरे तक खाए”, मतलब कि अगर मुफ़्त में मिले तो व्यक्ति मरने तक खाए। तुम्बाड में मिलता तो मुफ़्त है, पर कुछ गड़बड़ हुई तो मरने पर संदेह है। ज़िन्दगी ऐसी कि मौत बेहतर लगे, और स्थिति ऐसी की यमराज को भी दया आ जाए।
हस्तर का श्राप विनायक के लिए वरदान है, उसकी गरीबी से बाहर निकलने का तरीका है, पर ये सोना भी रक्त सोना है, कैसे, यह पिक्चर बताएगी।
हस्तर के पास दुनिया भर का सोना है, पर वो अनाज को तरसता है। शायद इससे बेहतर कोई और तरीका न होगा ये बताने का कि हम पैसे नहीं खा सकते। 6 साल में बनी यह पिक्चर इंसानी फितरत को बड़ी बारीकी से परखती है, और बेबाकी से सच सामने पटक देती है।
सोहम शाह की यह पिक्चर बॉलीवुड में बनी सभी हॉरर मूवीज़ से अव्वल है, पर इस पिक्चर की कम कमाई हमारे मुँह पर तमाचा है जो नेपोटिज़्म को गाली देते हैं पर असली सिनेमा की कद्र भी नहीं करते।
तुम्बाड सबूत है इस बात का, कि बेइंतहा चाहत से केवल दर्द का ही सृजन होता है, और इसका स्त्रोत चाहे डर हो या लालच, हमारे अंदर ही होता है।तुम्बाड महाराष्ट्र के कोंकण इलाके में एक गांव है. इस गांव के लोगों की ऐसी मान्यता है कि उनके पूर्वज यहां कोई खजाना छुपा गए हैं.राही अनिल बर्वे ने इस गांंव पर एवं प्रचलित मान्यता पर फिल्म ‘तुम्बाड’ बनायी है, जो कि इसी मान्यता को अलग-अलग दौर में ट्रेस करती है