भगवान कभी भी एक दूसरे से भिन्न नहीं होते ये सम्पूर्ण सृष्टि एक ही परमात्मा से उत्पन्न हुई है और उसी में ही विलीन हो जाएगी। भगवान के भिन्न भिन्न रूप हमारी मनोवर्ति का ही प्रदर्शन मात्र होता है, ईश्वर ने इस सृष्टि को तीन गुणों में विभक्त किया है जो है रजो गुण, सतो गुण और तमो गुण इन्ही तीनो गुणों पर यह सृष्टि चलायमान है। इन तीनो गुणों के प्रधान देवता ब्रह्मा (रजो गुण), विष्णु (सतो गुण) और शंकर (तमो गुण) है जो स्वयं में ही पूर्ण है। इनमे भेद को देखना केवल आखो का देखा मात्र है। इन तीनो के Combined रूप को आप चाहे तो शिव या विष्णु जो चाहे कह सकते है। इसके लिये में आपसे एक अति सूंदर कथा वर्णन करता हूँ।
ये कथा भगवान के उस रूप की है जिसे हम भौतिक आँखों से अलग अलग रूपों मे देखते है। ये कथा ईश्वर के दो अति सुन्दर रूप शिव और कृष्ण से जुडी हुई है। यह कथा महाराष्ट्र राज्य मे पंढरपुर की है जहां भगवान विट्ठल विराजमान थे वहाँ नरहरि नाम के एक संत व्यक्ति थे जो पेशे से सुनार थे और सुनारी का काम करते थे। स्वर्ण आभूषण बनाने के अलावा वह सच्चे दिल से ईश्वर की भक्ति भी करते थे।लेकिन वो ईश्वर को केवल शिव रूप मे ही पूजा करते थे निरंतर शिव जाप करने से उनके द्वारा बनाए गए स्वर्ण आभूषणों मे एक अलग ही छठा दिखाई देती थी, पर आश्चर्य की बात यह थी कि नरहरि ने भगवान विट्ठल को कभी देखा तक नहीं था और न ही वो देखने को राजी थे। उनका तो रोम-रोम केवल शिव-भक्ति की लगन में ही डूबा हुआ था। शिव के सिवा उन्हे कुछ भी नहीं सूझता था वो पूर्ण रूप से शिवमय ही थे।
लोग इस बात से हैरान थे कि पंढरपुर में रहकर कोई विट्ठल के दर्शन से कैसे वंचित रह सकता है। एक बार एक विट्ठल भक्त साहूकार ने भगवान से मनोति मांगी की उसे अगर संतान प्राप्ति हो जाय तो वह विठोवा को सोने की कमरबंद पहनाएगा विट्ठल जी के आशीर्वाद से साहूकार की मनोकामना पूर्ण हो गयी तब वह नरहरि जी के पास पहुंचा और उसने उन्हें विठोवा देवता के देवालय में चलकर उनके लिए सोने का कमरबंद तैयार करने को कहा। जब नरहरि जी ने कारण पूछा तो साहूकार ने बताया कि उसके कोई संतान नही थी। उसने मनौती की थी यदि उसे संतान हुई, तो वह विठोवा देवता को सोने का कमरबंद बना कर देगा। नरहरि जी ! भगवान विट्ठलनाथ ने प्रसन्न हो मुझे संतान दी है, इसलिए आज मैं उन्हें यह रत्नजड़ित सोने का कमरबंद चढ़ाना चाहता हूं। पंढरपुर में तुम्हारे अलावा इसे कोई नहीं गढ़ सकता। इसलिए उठो, भगवान की कमर का नाप ले आओ और ज़ल्दी से कमरबंद तैयार कर दो।
मगर नरहरि जी ने कहा – वे शिवजी के अलावा किसी अन्य देवालय में प्रवेश नही करते, इसलिए वे किसी दूसरे सुनार के पास जाए। साहूकार ने कहा – ‘आपके समान श्रेष्ठ सुनार और कोई नही, इसलिए मैं कमरबंद आपसे ही बनवाऊंगा। मैं विट्ठल देवता का नाप ले आता हूँ। साहूकार के द्वारा काफी विनती करने पर नरहरि जी ने मजबूरी में इसे स्वीकार कर लिया। साहूकार नाप लेकर आ गया और नरहरि जी ने उस नाप की कमरबंद बना दी, मगर पहनाने पर वह चार अंगुल बड़ी पड़ गयी। तो नरहरि ने उसे चार अंगुल छोटा कर दिया, किंतु इस बार चार अंगुल छोटी हो गयी कई बार ऐसा हुआ। आख़िर मे पुजारी व अन्य लोगो ने साहूकार को सलाह दी कि नरहरि स्वयं नाप ले-ले। साहूकार के अत्यधिक अनुनय-विनय करने पर बड़ी मुश्किल से नरहरि जी इसके लिए तैयार हुए। नरहरि जी स्वयं मंदिर जाकर नाप लेने को तैयार हो गये, किंतु शर्त रखी कि मेरी आंखों पर पट्टी बांधकर ले चलो, मैं हाथों से टटोलकर नाप ले लूंगा। साहूकार नरहरि जी को उनकी आंखों पर पट्टी बाँधकर मंदिर ले आया। जब उन्होंने नाप लेने के लिए मूर्ति को स्पर्श किया, तो उन्हे आभास हुआ की वह शिवजी की मूर्ति है।